harivansh rai bachchan poems

harivansh rai bachchan poems अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ

वृक्ष हों भले खड़े,

हों घने हों बड़े,

एक पत्र छाँह भी,

माँग मत, माँग मत, माँग मत,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

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तू न थकेगा कभी, तू न रुकेगा कभी,

तू न मुड़ेगा कभी,

कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

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यह महान दृश्य है,

चल रहा मनुष्य है,

अश्रु श्वेत रक्त से,

लथपथ लथपथ लथपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

harivansh rai bachchan poems in hindi on life

पूर्ण कर विश्वास जिसपर,

हाथ मैं जिसका पकड़कर,

था चला, जब शत्रु बन बैठा हृदय का गीत,

मैंने मान ली तब हार!

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विश्व ने बातें चतुर कर,

चित्त जब उसका लिया हर,

मैं रिझा जिसको न पाया गा सरल मधुगीत,

मैंने मान ली तब हार!

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विश्व ने कंचन दिखाकर

कर लिया अधिकार उसपर,

मैं जिसे निज प्राण देकर भी न पाया जीत,

मैंने मान ली तब हार!

harivansh rai bachchan poems in hindi

हो जाय न पथ में रात कहीं, 

मंजिल भी तो है दूर नहीं –

यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

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बच्चे प्रत्याशा में होंगे,

नीड़ों से झाँक रहे होंगे –

यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

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मुझसे मिलने को कौन विकल?

मैं होऊँ किसके हित चंचल? –

यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!


harivansh rai bachchan poems हरीबदला ले लो, सुख की घड़ियो!

सौ-सौ तीखे काँटे आये

फिर-फिर चुभने तन में मेरे!

था ज्ञात मुझे यह होना है क्षण भंगुर स्वप्निल फुलझड़ियो!

बदला ले लो, सुख की घड़ियो!


उस दिन सपनों की झाँकी में

मैं क्षण भर को मुस्काया था,

मत टूटो अब तुम युग-युग तक, हे खारे आँसू की लड़ियो!

बदला ले लो, सुख की घड़ियो!


मैं कंचन की जंजीर पहन

क्षण भर सपने में नाचा था,

अधिकार, सदा को तुम जकड़ो मुझको लोहे की हथकड़ियो!

बदला ले लो, सुख की घड़ियो!

harivansh rai bachchan poems

मेरी हर आशा पर पानी,

रोना दुर्बलता, नादानी,

उमड़े दिल के आगे पलकें, कैसे बाँध बनाले।

कैसे आँसू नयन सँभाले।

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समझा था जिसने मुझको सब,

समझाने को वह न रही अब,

समझाते मुझको हैं मुझको कुछ न समझने वाले।

कैसे आँसू नयन सँभाले।

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मन में था जीवन में आते वे, जो दुर्बलता दुलराते,

मिले मुझे दुर्बलताओं से लाभ उठाने वाले।

कैसे आँसू नयन सँभाले।

harivansh rai bachchan poems in hindi आज आहत मान, आहत प्राण!

कल जिसे समझा कि मेरा

मुकुर-बिंबित रूप,

आज वह ऐसा, कभी की हो न ज्यों पहचान।

आज आहत मान, आहत प्राण!

'मैं तुझे देता रहा हूँ

प्यार का उपहार',

'मूर्ख मैं तुझको बनाती थी निपट नादान।'

आज आहत मान, आहत प्राण!

चोट दुनिया-दैव की सह

गर्व था, मैं वीर,

हाय, ओड़े थे न मैंने

शब्द-भेदी-बाण।

आज आहत मान, आहत प्राण!

harivansh rai bachchan poems

लहर सागर का नहीं श्रृंगार,

उसकी विकलता है;

अनिल अम्बर का नहीं, खिलवार

उसकी विकलता है;

विविध रूपों में हुआ साकार,

रंगो में सुरंजित,

मृत्तिका का यह नहीं संसार,

उसकी विकलता है।

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गन्ध कलिका का नहीं उद्गार,

उसकी विकलता है;

फूल मधुवन का नहीं गलहार,

उसकी विकलता है;

कोकिला का कौन-सा व्यवहार,

ऋतुपति को न भाया?

कूक कोयल की नहीं मनुहार,

उसकी विकलता है।

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गान गायक का नहीं व्यापार,

उसकी विकलता है;

राग वीणा की नहीं झंकार,

उसकी विकलता है;

भावनाओं का मधुर आधार

सांसो से विनिर्मित,

गीत कवि-उर का नहीं उपहार,

उसकी विकलता है।

harivansh rai bachchan poems त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!

जब रजनी के सूने क्षण में,

तन-मन के एकाकीपन में

कवि अपनी विव्हल वाणी से अपना व्याकुल मन बहलाता,

त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!


जब उर की पीडा से रोकर,

फिर कुछ सोच समझ चुप होकर

विरही अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ हटाता,

त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!


पंथी चलते-चलते थक कर,

बैठ किसी पथ के पत्थर पर

जब अपने ही थकित करों से अपना विथकित पांव दबाता,

त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!


- हरिवंशराय बच्चन - 


#2.नीड का निर्माण

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर!


वह उठी आँधी कि नभ में

छा गया सहसा अँधेरा,

धूलि धूसर बादलों ने

भूमि को इस भाँति घेरा,


रात-सा दिन हो गया, फिर

रात आ‌ई और काली,

लग रहा था अब न होगा

इस निशा का फिर सवेरा,


रात के उत्पात-भय से

भीत जन-जन, भीत कण-कण

किंतु प्राची से उषा की

मोहिनी मुस्कान फिर-फिर!


नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर!


वह चले झोंके कि काँपे

भीम कायावान भूधर,

जड़ समेत उखड़-पुखड़कर

गिर पड़े, टूटे विटप वर,


हाय, तिनकों से विनिर्मित

घोंसलो पर क्या न बीती,

डगमगा‌ए जबकि कंकड़,

ईंट, पत्थर के महल-घर;


बोल आशा के विहंगम,

किस जगह पर तू छिपा था,

जो गगन पर चढ़ उठाता

गर्व से निज तान फिर-फिर!


नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर!


क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों

में उषा है मुसकराती,

घोर गर्जनमय गगन के

कंठ में खग पंक्ति गाती;


एक चिड़िया चोंच में तिनका

लि‌ए जो जा रही है,

वह सहज में ही पवन

उंचास को नीचा दिखाती!


नाश के दुख से कभी

दबता नहीं निर्माण का सुख

प्रलय की निस्तब्धता से

सृष्टि का नव गान फिर-फिर!


नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर!

- हरिवंशराय बच्चन -


जीवन में एक सितारा था

माना वह बेहद प्यारा था

वह डूब गया तो डूब गया


अम्बर के आनन को देखो

कितने इसके तारे टूटे

कितने इसके प्यारे छूटे


जो छूट गए फिर कहाँ मिले

पर बोलो टूटे तारों पर

कब अम्बर शोक मनाता है

जो बीत गई सो बात गई


जीवन में वह था एक कुसुम

थे उसपर नित्य निछावर तुम

वह सूख गया तो सूख गया


मधुवन की छाती को देखो

सूखी कितनी इसकी कलियाँ

मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ

जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली


पर बोलो सूखे फूलों पर

कब मधुवन शोर मचाता है

जो बीत गई सो बात गई


जीवन में मधु का प्याला था

तुमने तन मन दे डाला था

वह टूट गया तो टूट गया

मदिरालय का आँगन देखो


कितने प्याले हिल जाते हैं

गिर मिट्टी में मिल जाते हैं

जो गिरते हैं कब उठतें हैं


पर बोलो टूटे प्यालों पर

कब मदिरालय पछताता है

जो बीत गई सो बात गई


मृदु मिटटी के हैं बने हुए

मधु घट फूटा ही करते हैं

लघु जीवन लेकर आए हैं


प्याले टूटा ही करते हैं

फिर भी मदिरालय के अन्दर 

मधु के घट हैं मधु प्याले हैं

जो मादकता के मारे हैं


वे मधु लूटा ही करते हैं

वह कच्चा पीने वाला है

जिसकी ममता घट प्यालों पर

जो सच्चे मधु से जला हुआ


कब रोता है चिल्लाता है

जो बीत गई सो बात गई।।

- हरिवंश राय बच्चन - 


#7.चल मरदाने 

चल मरदाने, सीना ताने,

हाथ हिलाते, पांव बढाते,

मन मुस्काते, गाते गीत ।



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